Tuesday, February 9, 2010

कैसे आभार कहूँ मैं!

विश्व के कण-कण के प्रति मेरा आभार। दुनिया का हर तंत्र किसी न किसी रूप में हमारी सहायता करता है। हमारे लक्ष्य कि प्राप्ति में, हमारे जीवन को जीने में।


कैसे आभार कहूँ मैं!
चलते
-चलते निर्जन पथ पर, जब भी कभी थकान हुई।
हर और सुनहरी धूप किन्तु, मेरी पलकों में शाम हुई.
जब लगे कदम कतराने मेरे, मंजिल तक पहुंचाने से,
जब लगे भाव उतराने मन में, अनदेखे-अनजाने से।
जब मन हारा चिल्लाया-‘मैंने कैसी रेखा खींच दिया?’
कुछ यादों कि बरसात हुई, मेरी पलकों को सींच दिया।
वे स्नेह-सिक्त दो शब्द तुम्हारे, मुझे राह दिखलाए जो,
फिर भूल उन्हें औ’ तुम्हे छोड़, कैसे उस पार बहूँ मैं!
कैसे आभार कहूँ मैं!

जब-जब हुआ निराश, स्तब्ध, मैं जीवन के चौराहों पर,
कुछ सूझा नहीं सिवाय टिकाने के, सर अपनी बाहों पर.
जब आंसू कि बूंदों से धुलकर मेरी पलकें साफ़ हुईं,
तब लगा प्रकृति के हाथों मेरी लाख सजायें माफ़ हुई।
मैं चला, किन्तु वे बिखर चुके थे तब तक सपने आँखों से.
थककर मैं चकनाचूर हुआ, ढूंढता-पूछता लाखों से।
तेरी मुस्कानमयी छवि ने, वापस वे स्वप्न सजाये थे,
हूँ दबा तुम्हारे उपकारों से, कितना भार सहूँ मैं!
कैसे आभार कहूँ मैं!

हूक

'हूक' मेरी एक रचना है। मेरी अपनी रचना । मेरी स्वतंत्र कल्पना। शायद कहीं किसी कोने में कुछ वास्तविकता भी हो। अगर वास्तविकता न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। सृष्टि का सृजन भी परमात्मा की एक अनोखी कल्पना ही है। दुनिया अधिकांशतः काल्पनिक लोक में ही जीना पसंद करती है।

मेरी कविता - 'हूक' चातक और स्वाति के वियोग से सम्बंधित है। चातक अर्थात पपीहा.पपीहे का स्वाति के प्रति प्रेम जग-चर्चित है। पपीहे का जैसा प्रेम स्वाति के प्रति है, ऐसा कोई और उदाहरण मिलना असंभव है। पपीहे का व्रत है कि वह स्वाति नक्षत्र के अतिरिक्त किसी अन्य नक्षत्र में हुई वर्षा का जल नहीं पीता, प्राण भले ही चला जाय। प्रश्न यहाँ यह है कि क्या स्वाति को पपीहे के निःस्वार्थ प्रेम का आभास है? अगर नहीं तो क्यों? जहाँ तक प्रतीत होने की बात है, शायद स्वाति का प्रेम पपीहे के प्रति है ही नहीं। वैसे यह कोई अनोखी घटना नहीं है। सत्य की परीक्षा सदैव अग्निपरीक्षा ही होती है और पपीहे का सच्चा प्रेम भी उसका अपवाद नहीं।

लोगों की दृष्टि में चातक का प्रेम स्वाति के लिए 'एकतरफा' है। चातक को इसकी परवाह नहीं की उसे स्वाति का प्रेम प्राप्त होगा भी या नहीं, स्वाति उसे प्रेम करती भी है या नहीं। कुछ भी हो, पपीहे का प्रेम स्वाति के लिए निःस्वार्थ है और इसमें कोई संदेह नहीं.'एकतरफा' प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है और यह स्वाति का सौभाग्य है कि उसे किसी का निःस्वार्थ प्रेम प्राप्त हो रहा है। यहाँ पर स्वाति की पात्रता का आकलन करना उचित नहीं होगा। पपीहे का प्रेम एक आदर्श प्रेम है जो अपने प्रिय से यह अपेक्षा भी नहीं रखता कि उसे भी प्रिय का प्रेम मिले। प्रेम का आनंद त्याग में है। जहाँ अपेक्षा है वहां प्रेम नहीं, व्यापार है। प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठकों को समर्पित हैं :

इसमें पपीहे के अंतर्मन ने निःसृत शब्द आंसुओं की बूंदों से धुले हुए हैं


इस मन-विषाद-उपवन में,
दावानल-लपट गरजती।
धक्-धक्-धक् धधक-धधक कर,
दुःख-जल से हृद को भरती।

जैसे ही रजनी बीती,
घूंघट झट उठा उषा का।
नभ ने मोती बरसाए,
आँचल भर गया उषा का।

ऊषा दुल्हन का आना,
जड़-चेतन को हर्षाया।
नभ ने लालिमा बिखेरी,
द्युति से दिगंत भरमाया।

झूमता हुआ चलता है,
शीतल समीर मतवाला।
हाथी जैसा; ज्यों इसने,
पी लिया मधुर मधुप्याला।

तरुओं के किसलय डोले,
मन के सरोज पुलकाए।
खग-कुल भी पुलक-पुलककर,
सुख के आंसू धुलकाए।

दिनकर बुनकर ने बुनकर,
किरणों का ताना-बाना।
जब पीत वसन लहराए,
बिखरा तुषार का दाना।

धरती पर ज्यों ही बिखरी,
शीतलता की तरुणाई।
दुःख की रजनी से घिरकर,
मेरी आँखें भर आयीं।

दिल में उठती जाने क्यों,
है हूक निरंतर मन में।
जैसे ही हुआ सबेरा,
हो गयी सांझ जीवन में।

मैं जगा हुआ पर सोया,
देखता दिवस में सपने।
किसके आगे रो-रोकर,
मैं कह डालूं दुःख अपने।

मन ही मन अपने दुःख के,
ताने-बाने बुनता हूँ।
हर पल बस मैं तेरा ही,
नित रूप-गान सुनता हूँ।

प्रिय, देख अधर की तेरे,
प्रातः-नभ सी अरुणाई,
अलि-नयन विनत हो जाते,
दर्शन कर तव तरुणाई।

जैसे ही तूने अपने,
काले काले लट खोले,
सुख के बादल घिर आये,
मन में मयूर झट बोले।

मुख-मंडल की शोभा से,
मंगल-मयंक शरमाया।
श्रीहीन हो उठे उसके-
दृग; देख तुम्हारी काया।

पड़ते ही दृष्टि तुम्हारी,
प्रिय! श्यामल भृकुटी सघन पर।
शरमाकर इन्द्र धनुष के,
बिखरे कण-कण नभ-तन पर।

तव हार श्वेत चंपा की,
मचलन मेरा चित-अरि था।
हिमगिरी से उतर रही ज्यों,
भटकी चांदी की सरिता।

दसनावालियाँ तेरी हैं,
ज्यों कोमल शतदल पांती।
रसना बहती धारा सी,
बिच कुमकुम की बलखाती।


मैं रहा साल भर प्यासा,
क्षण भर को ही तो आई।
दो बूंद मधुर-मधु तूने,
मुंह में मेरे टपकाई।

पर कहाँ बुझ सकी मेरी,
चिर जीवित प्रबल पिपासा।
प्रत्युत हो गई प्रबलतर,
ज्यों आई लहर निराशा।

मैं हूँ प्यासा का प्यासा,
अंतर्मन तडपा डाले
तेरी दो मधु-बूंदों से,
पड़ गए जीभ में छाले

मैंने कितना झेला था,
पतझड़ की ज्वलित थापेड़ें।
घड़ियाँ गिनता रहता था,
कब बहुरेंगे दिन मेरे।

मैं तुझे रोकना चाह।
पर समय आ गया आड़े।
वर्षा भी बीत चुकी थी,
जब तक झाँका पिछवाड़े।

तब तक तू निकल चुकी थी,
कर फिर आने का वादा।
अब कितना समय बिताऊँ,
तुमने दुःख से भी लादा।

दो बात मुझे कहनी थी,
दो तुमसे भी सुननी थी
उन बातों के तारों से,
मुझको यादें बनानी थी

बह गई प्रेम में दुनिया,
पर कभी मैं बह पाया
तुम भी कुछ सुन पायी
मैं ही कुछ कह पाया.

मेरे जीवन का अनुपम,
क्षण तुमसे मात्र मिलन था।
था मेरा भाग्य सुनहरा,
जीवन का अभिनन्दन था।

तेरी मोहक चितवन ने,
जब मेरा चित-वन सींचा।
सुख के मोती खिल आये,
ज्यों ही आँखों को मींचा।

मैं सतत मनन करता हूँ,
तेरी सुख रूप मधुरिमा।
जिसके बल पर जीवित है,
यह दुनिया; किसकी गरिमा?

कब तलक रहूँगा प्यासा,
इसको तो तुम ही जानो,
हे स्वाति प्रिये तुम मेरी,
दुःख तडपन तो पहचानो।


कोयल की भी आवाजें,
अब मुझको कर्कश लगतीं।
रह-रह कर सिहर-सिहरकर,
जाने क्यों आहें जगतीं।

मेरे दुःख के सागर में,
हैं पड़ी हजारों सीपें।
मुख में उनके टपका दो,
तुम बूंदें अम्बु-अमी के।

मैं तेरे पीछे दौड़ा,
चिल्लाकर तुझे पुकारा।
पर तुम कर चली गई हो,
जाने क्या गूढ़ इशारा।

कुछ शब्द-बिंदु टपकेंगे,
मुख से तेरे, थी आशा
लेकिन मैं समझ पाया,
तेरे नयनों की भाषा

क्या कहीं कमी थी मेरे,
पीने के हित जल की?
पर नहीं, प्रतिज्ञा मेरी,
निश्चित थी, सुदृढ़ अचल थी।

मैंने अपने जीवन-हित,
बस तुमको एक वरा है।
औरों के लिए हृदय पट
पर बैठा अब पहरा है।

तुम जिसको चाहो चुन लो,
पर मैंने तुम्हे चुना है।
दिल की मेरी धड़कन में,
बस तेरा रूप बुना है।

तुम ही बस एक रहोगी,
मेरे इस अंतर्मन में,
यादों का पुष्प हमेशा,
महकेगा इस जीवन में।

कविता अभी समाप्त नहीं हुई। यह तो पपीहे का प्रेम है, उसका अपना एकतरफा प्रेम। सच्चा प्रेम। निःस्वार्थ प्रेम। कहानी और भी है। यह तो पपीहे का अपना भाव है।

अगर आप आँक सकें तो आंकें की पपीहे की इन बातों पर स्वाति का क्या जवाब होगा। नहीं तो आप प्रतीक्षा करें, मैं वह भी लिखूंगा। फिलहाल यह कविता अधूरी है, यह कहानी अधूरी है।



क्यों?

क्यों?
मैंने सोचा कि अपनी हिंदी की भी कवितायें कहीं सुरक्षित करूँ।
बात 'क्यों' पर आकर अटक गई.
ऐसा 'क्यों' हुआ? ऐसा 'क्यों' नहीं हुआ? मैं ऐसा 'क्यों' करूँ? 'क्यों' नहीं? अगर ऐसा तो 'क्यों'? अगर नहीं तो 'क्यों' नहीं?

'क्यों' सारे प्रश्नों का सम्राट है। सारे प्रश्नों के उत्तर किसी न किसी तरह से इसी 'क्यों' पर आकर उलझ जाते हैं। यहाँ फिर से एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है कि ऐसा 'क्यों'? इस 'क्यों' कि श्रृंखला कभी समाप्त नहीं होने वाली। एक 'क्यों' विश्राम पर जाता है तो दूसरा आ खड़ा होता है। अंततः यह जिंदगी ही 'क्यों' है। यह प्रश्न नहीं, जिंदगी कि परिभाषा है।

जो भी हो, कुछ भी हो, इतना जरुर है कि हर 'क्यों' का जवाब नहीं होता.